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जीवनी/आत्मकथा >> स्वामी रामकृष्ण परमहंस

स्वामी रामकृष्ण परमहंस

लालबहादुर सिंह चौहान

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5782
आईएसबीएन :81-7043-442-4

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दिव्य पुरुष परमहंस का जीवन–चरित्र एवं कतिपय उपदेश-वचनामृत का संग्रह

Swami Ramkrishna Paramhansh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

शिक्षित समाज में शायद ही कोई मनुष्य ऐसा होगा जो स्वनामधन्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस के नाम से परिचित न हो। विश्ववासी आज उनके ज्योतिर्मय सात्विक जीवन के प्रभाव से बेहद प्रभावित हो रहे हैं। वे बंग देश की ही महान् विभूति नहीं थे, अपितु अखिल विश्व की एक अपूर्व ज्योति, एक महान् आदर्श तथा सर्वधर्म-प्राण और विश्व-प्रेम के एक ज्वलंत प्रतीक थे।

स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस ऐसे ही एक देदीप्यमान नक्षत्र थे जिनका जीवन गृहस्थ तथा संन्यासी-सभी का आदर्श है। उनके अपूर्व जीवन पर जितना ही मनन किया जाए उतना ही उनके प्रति अधिक आकृष्ट तथा श्रद्धायुक्त होना होता है। उनके सौरभ से आकृष्ट हुए स्वदेश और विदेशों में सुधी साधक स्त्री-पुरुषों की संख्या में उनकी मधुमय श्रेष्ठ शिक्षा के लिए लालायित हो उठे हैं। हजारों लोग उनकी महत्त्वपूर्ण शिक्षा से लाभान्वित भी हो रहे हैं। कारण, उनकी शिक्षाएं सरल तथा स्वाभाविक, अनुपम माधुर्यपूर्ण तथा सारगर्भित हैं। निश्चय ही जो कोई भी मनुष्य स्वामी श्रीरामकृष्ण परमहंस के महत्त्वपूर्ण जीवन, उनके उपदेशों तथा महान शिक्षाओं का अनुशरण करेगा, वह धन्य होगा। कृतकृत्य होगा और उसका मनुष्य जीवन धारण करना सार्थक होगा तथा वह सांसारिक त्रिताप-ज्वाला से अवश्य मुक्त हो जाएगा।

जिस समय धर्म-शून्य अनीश्वरवाद अहंकार-परायण पाश्चात्य सभ्यता के संपर्क से भारतीय नवयुवक-समाज में नास्तिकता, अहंभाव और आत्मृविस्मरण आदि दुर्गुण अधिक फैल रहे थे, उस समय इस विश्व-ज्योति महापुरुष स्वामी श्री रामकृष्ण परंमहस का अवतार इसी निमित्त हुआ था कि वे सब संसार की अधोगति के कारण उत्पन्न दुर्गुण नष्ट हों और उनके स्थान पर सच्चाई, दया, ईश्वर-सद्भाव, सेवा और वास्तविकता आदि सद्गुणों का फिर से प्रसार हो। स्वामी श्रीरामकृष्ण परमहंस का अतुलनीय चरित्र तथा जीवनकथा एक अभ्यासमय धार्मिक कहानी है। उनके जीवन से हमें ईश्वर को प्रत्यक्ष अनुभव करने का आदर्श प्राप्त होता है और यह निश्चय होता है कि एकमात्र ईश्वर ही सत्य है एवं उसके अतिरिक्त सब मिथ्या है। स्वामी श्री रामकृष्ण परमहंस वास्तव में मानवत्व व देवत्व के मूर्त प्रतीक थे।

दिव्य पुरुष परमहंस के जीवन–चरित्र एवं कतिपय उपदेश-वचनामृत संग्रहीत कर ‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ शीर्षक से अपनी कृति पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं। प्रस्तुत पुस्तक कैसी बन पड़ी है इसका निर्णय विज्ञ पाठक स्वयं करेंगे।
अंत में मैं अपने मित्र डॉ. नारायण सिंह दुबे पूर्व रीडर, हिंदी विभाग, डीम्ड यूनिवर्सिटी दयालबाग आगरा के प्रति अविलंब इस कृति के अभिमत लेखन के लिए अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूं।

डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान

अभिमत


डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान द्वारा ‘रामकृष्ण परंमहंस’ के जीवन पर लिखित इस ग्रंथ को पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वस्तुतः यह जीवनी शैली में लिखा हुआ एक पठनीय ग्रंथ है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसकी भाषा की सरलता, सहजता और शैली की संप्रेषणीयता है। यह पुस्तक बाल, किशोर और प्रौढ़ सभी के लिए पठनीय और मननीय है। इसका मूलमंत्र मानवतावादी एवं सर्वधर्म समभाव है। इसमें कठिन शब्दों जटिल वाक्यांशों और दार्शनिक शब्दावली का प्रयोग न के बराबर है। अतः यह सभी के मन को प्रभावित करने वाली एवं उदात्त भावों से परिपूर्ण करने वाली है।
इस पुस्तक में श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन के विविधि प्रसंगों का क्रमबद्ध एवं सांगोपांग वर्णन पड़ी रोचक शैली में प्रस्तुत किया गया है। इसमें उपन्यास के कौतूहल तत्त्व की भी सृष्टि की गई है, साथ में ऐतिहासिकता का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। अतः इसे एक सफल जीवनी-ग्रंथ कहा जा सकता है।

लेखक की मान्यता है कि श्री रामकृष्ण परमहंस अपने युग के अवतारी पुरुष थे। वे प्रारंभ से ही संत स्वभाव के थे। वे विश्व चेतना व विश्व मानवतावाद में विश्वास करते थे। उन्होंने उस परम ज्योति के दर्शन अपने युग में प्रचलित सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों द्वारा किए जिसमें काली मूर्तिपूजा, भक्तियोग, तन्यराम वत्सलभाव, कृष्णभक्ति, इस्लामिक उपासना पद्धति और ईसाई भक्तिभाव सभी सम्मिलित हैं।

अस्तु, डॉ. चौहान का यह प्रयास सर्वथा श्वाघनी एवं अनुकरणीय हैं। हम डॉ. चौहान से आशा करते हैं कि वे इसी प्रकार अन्यान्य हिंदू, सिक्ख, मुसलमान और ईसाई संतों के जीवन पर प्रकाश डालकर मानवता और सांप्रदायिक सद्भाव का पावन-घोष जन-जन तक पहुंचाएंगे।

डॉ. नाराण सिंह दुबे

स्वामी रामकृष्ण परमहंस


लगभग दो सौ वर्ष पूर्व की बात है। पश्चिम बंगाल प्रांत के घामारपुकूर गांव में एक छोटे से घर में एक कुटुंब निवास करता था। वास्तव में घामारपुकूर सुंदर एवं रमणीक गांव था जो तमाम वृक्षों और हरे-घनों धानों के खेतों से घिरा था। घामारपुकूर के उत्तर में 25 किलोमीटर की दूरी पर वर्दवान शहर स्थित है, जो पक्के मार्ग से जुड़ा हुआ है। वर्दमान से यह सड़क मार्ग घामारपुकूर होता हुआ तीर्थस्थल जगन्नाथपुरी तक जाता है। जगन्नाथपुरी की पैदल यात्रा करने वाले लोग मुख्यतः साधु-संत आदि प्रायः उक्त ग्राम घामारपुकूर होकर ही जगन्नाथपुरी जाते हैं।

उस कुटुंब में कुल चार प्राणी थे—क्षुदिराम, चंद्रादेवी, रामकुमार और कुमारी कात्यायनी। श्रीमती चंद्रादेवी श्री क्षुदिराम की धर्मपत्नी थीं और रामकुमार इस दंपत्ती का पुत्र तथा कुमारी कात्यायनी पुत्री थी। रामकुमार और कात्यायनी भाई-बहन दोनों अभी छोटी आयु के थे। पूरे कुटुंब के पालन-पोषण का भार क्षुदिराम के ही ऊपर था। राम के भरोसे, संघर्ष करते हुए किसी प्रकार गृहस्थी चल रही थी।

एक जमाना था जब क्षुदिराम के पास पच्चीस-तीस एकड़ जमीन थी। कई बाग-बगीचे थे, सरोवर था और अपना अच्छा-खासा आलीशान मकान था। बड़ी शांति और शुकून से यह परिवार जीवन-यापन कर रहा था। परंतु अचानक क्षुदिराम के दिन खराब आ गए और वह विपत्ति में फंस गए।
हुआ यों कि एक झूठे मुकदमें में क्षुदिराम की गवाही न देने के कारण एक जमींदार के कोप-भाजन बन गए। उनका सर्वस्व धूल की भांति उड़ गया और वह अत्यंत निर्धन व लाचार हो गए। और तब क्षुदिराम ने घामापुकूर गांव के एक छोटे मकान में आश्रय लिया।

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